सोमवार, 25 अगस्त 2008

रूठा है कुछ मुझसे


रूठा है कुछ मुझसे,
मेरा ही अपना आप कहीं

मेरा अपना ही हिस्सा है
चलता जो मेरे साथ नहीं

क्यों दूरी है ?
हम कोई दिन रात नहीं

मैं चलती हूँ जब पूरब को
चल देता है पश्चिम की ओर कहीं

कैसे बोलूँ मेरा तो
तुम बिन कोई ख्वाब नहीं

और पश्चिम में तो ,
खिलती कोई आस नहीं

जीवन तो जीवन होता है
आँसू की बरसात नहीं

फूलों को खिलना होता है
क्यों बहारों का गुंजन साथ नहीं

पेंगें लेते हम सावन की
फिर क्यों हाथों में हाथ नहीं

जीवन का पलड़ा भारी है

हालातों से ,संघर्षों से
तेरे मन के अंतर्द्वंदों से
जीवन का पलड़ा भारी है

भ्रमों से, विषादों से
नीरवता के कोलाहल से
जीवन का पलड़ा भारी है

तेरे अहं से,तेरे दंभ से
तेरी विष से भरी जुबानों से
जीवन का पलड़ा भारी है

तेरी जाति से, तेरे धर्म से
तेरे ऊँचें नीचे समाजों से
जीवन का पलड़ा भारी है

तेरे सुखों से,आरामों से
वैभव के साजो-सामानों से
जीवन का पलड़ा भारी है

तेरे अनुत्तरित सवालों से
कर्मों का पलड़ा भारी है
जीवन का पलड़ा भारी है

रविवार, 24 अगस्त 2008

थकन लेकर

वक़्त फिसल जाता है मुठ्ठी से
बालू की तरह

हिस्से कुछ नहीं आता
हारे हुए प्यादे की तरह

झुनझुनों से बहलेंगें
तो बह जायेंगे तिनकों की तरह

उगा लेता है सब्ज़ बाग़ भी
कब्र गाहों पर

ये आदमी का हौसला है ,
चुन लेता है फूल
सीने में सब दफ़न करके

वरना चलना नहीं होगा
चलने की थकन लेकर


शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

एक कदम दूर

एक कदम तुम दूर थे
इतनी बड़ी खाई थी
कि फुसफुसाने की आवाज़ भी आती

बस एक कदम और
और तन्हाई सज सकती थी

जाना मैने भी है
समझा तूने भी है
सदियों सा फासला सह कर 

गया वक़्त क्या कभी लौटा है
हाँ ,सज सकता है
बीते लम्हों की निशानी हो कर