रविवार, 24 अगस्त 2008

थकन लेकर

वक़्त फिसल जाता है मुठ्ठी से
बालू की तरह

हिस्से कुछ नहीं आता
हारे हुए प्यादे की तरह

झुनझुनों से बहलेंगें
तो बह जायेंगे तिनकों की तरह

उगा लेता है सब्ज़ बाग़ भी
कब्र गाहों पर

ये आदमी का हौसला है ,
चुन लेता है फूल
सीने में सब दफ़न करके

वरना चलना नहीं होगा
चलने की थकन लेकर


1 टिप्पणी:

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