सोमवार, 29 सितंबर 2008

हम तो लिखते हैं


अमर उजाला में कविता छपने पर चेक प्राप्त हुआ ,बरबस मन ने कुछ पंक्तियाँ लिख डालीं

कौन पैसों के लिए लिखता है
हम तो लिखते हैं कि कुछ कदम चल पायें

हमको तो ये ईनाम दिखता है
चलते चलते कोई पल बहार बन आए

शब्द कब किसी की जागीर हुए
रोना हंसना बन भावों में उतर आए

शब्द फूल बन खिला करते हैं
गर दिल के रागों को जुबान मिल जाए

क्यों खर्चू ,सजा लूँ तमगों की तरह
कीमती लम्हों को थोड़ा ठहराव मिल जाए

हम तो लिखते हैं कि कुछ कदम चल पायें
वरना रुक गए थे ,ठगे से, ज़माने की रफ़्तार देखते हुए




रविवार, 28 सितंबर 2008

सफर के सजदे में

क्यों न हम अपने संवेदन शील मन को सृजन की डोर थमा दें । दुःख रात की तरह काला और अंतहीन , सृजन क़दमों को दिशा देता ,आशा का टिमटिमाता दिया। सृजन ही जीवन है ।

कविता की आख़िरी पंक्ति को सकारात्मक ही होना है, ये मेरा ख़ुद से वायदा है , जैसे डूब डूब कर ऊपर आना ही है ।

जीवन यात्रा छोटी हो या लम्बी हो उसकी मर्जी ,इस सफर का सजदा तो अपने वश में है । अभिवादन करें तो तन मन के साथ प्रकृति भी गाती है , ठुकरातें हैं तो ऋणात्मक गूँज दूर तलक जाती है ; अन्दर कहीं कुछ मर जाता है , तूफ़ान से घिर आतें हैं । जब यात्रा ही सब कुछ है ,और एक हद तक अपने बस में भी है ,तो क्यों न इसका सजदा करें ।

रविवार, 21 सितंबर 2008

रोशन करना था दुनिया को

इस दम को लगाना था और कहीं
बिखरी दुनिया को सजाने में

रोशन करना था दुनिया को
दम लगा दिया बिखराने में

आधार ये कैसा उठा लिया
अपने मन को ठग ,समझाने में

आधार नहीं ये,विकृति है
दुनिया के सभ्य समाजों में

ईश्वर ही खुशियाँ बांटता है
नित आ कर नये नये रूपों में

क्यों मन पर बांधें बोझ चला
सर पर रक्खे उस पत्थर में

आहा,क्या मज़ा समंदर में
तैरने में ,हंसने गाने में