गुरुवार, 27 नवंबर 2008

सड़कों पर बिखरा है लहू


वो जो सड़कों पर बिखरा है लहू
रुक के देख , किसका है ?
तेरा हाथ , तेरा पाँव , तेरे वजूद का हिस्सा तो नहीं ?

लहू के बदले लहू
इतनी जानों का लहू ,
कितने जन्मों में चुका पायेगा ?

इतनी आहों , इतनी सिसकियों की भरपाई कैसे होगी ?
कफ़न को सेहरा समझ ,भटकती रूहों की समाई कैसे होगी ?

तराजू में तुल के मिलती है रहमत ,मरहम के बदले
क्यों बने मोहरे , वहशत के कारोबार से सुकून कैसे होगा ?

चार दिन जो जन्नत का नजारा लेते
सफर का सुकून ही सब कुछ है
क्यों जहर का सहारा लेते

मानवता , खून के आँसू रोती है

नफरत के काँटें क्यों बोये
ले आये ये किस पड़ाव पर

मानवता , खून के आँसू रोती है

हँसते हुए चेहरे और आँखें
बदले हैं खून की आँधी में 


उछले हैं धड़ और हाथों में
ये ऐसे मन्जर क्यों लाये


अरसे तक पीछा करते हैं
ऐसे सपने भी


रो-रो कर उठते हाथ कहो
ये किसका मातम करते हैं


सदियों तक रोयेंगे ये
ये कैसी फसलें बोई हैं


उजाले भी शर्माते तुमसे
ये ऐसे अन्धेरें क्यों लाये


करना था दिलों पर राज तुझे
चढ़ बैठा ढेर पे लाशों के


पीटता है ताली अपने ही
जमीर की घुटती साँसों पे


अपने बच्चों को क्या देगा
काले अक्षर और स्याह काली रातों सी तख्ती


निर्दोषों के खून से नहाई धरती
चलने को जमीन भी न छोडी


आसमानों की बातें करते हैं
नफरत के कांटें क्यों बोए
मानवता , खून के आँसू रोती है

बुधवार, 26 नवंबर 2008

प्रेम के रागों को अलापा करते

बेवजह भूतों को हम जिन्दा करते
क्यों फरिश्तों को न हम बुलाया करते


मरुस्थलों में लगा आग तपाया करते
क्यों वीरानों को न सजाया करते


रत्ती भर जो न मिला , दुःख को लम्बा करते
क्यों भरे पेट , भरे मन भीअघाया करते


ख़ुद ही दुश्मन बने अपने , गड़े मुर्दों को साथ चलाया करते
क्यों न दिल की ढपली पे , प्रेम के रागों को अलापा करते

रविवार, 23 नवंबर 2008

पकड़ना ही है तो कर्म को पकडो


आलस है तो , तुमको पकड़ लेता है ये
पकड़ लेते हो तो जकड़ लेता है ये
और जकड़ा तो नकारा कर देता है ये
पकड़ना ही है तो कर्म को पकडो
जकड़ना ही है तो मेहनत को जकडो
गढ़ना ही है तो वक़्त को गढो

एक एक मोती ,एक एक उतार चढाव
गहने की गठन , गहने की तपिश
लरजती उँगलियों के पड़ाव
आत्मा को अभिभूत करता बहाव
पकड़ना ही है तो कर्म को पकडो

ना बन पाए गर किसी गले का हार
किसी माथे का मुकुट , किसी पायल की झंकार
क्या हुआ , इस सफर में बने
बहुतों की खिली मुस्कान ,गर्माहट , रंगों की झनक , राहत का सामान
पकड़ना ही है तो कर्म को पकडो

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

आदमी का मन और भावभंगिमाओं का तालमेल


आदमी का मन और भावभंगिमाओं का तालमेल देखिये
निश्छलता और खुशी का यूँ कुछ मेल देखिये
बच्चे के साथ हँसते -गाते , तोतली जुबानों में उसका बचपन देखिये
मन में आई लाज तो ,
झुकी पलकों में लाल-लाल डोरे देखिये
बांकी चितवन की मुस्कराहट सरे आम देखिये
भृकुटी चढ़ी , ललकारता हुआ रौद्र रूप देखिये
उसकी जुबानों में उतरा उसका निकृष्टतम रूप देखिये
तीर सी चीरती ,पैनी नज़र , शक के दायरे में लिपटी
रहस्यमय नज़र का रहस्यमय रूप देखिये
छल से ओढी हुई मुस्कराहट ,मुखौटे का असल रूप देखिये
कितना छिपाएगा ,असल का नक़ल रूप देखिये
गले तक डूबा हुआ ,नम निगाहों से गर्माहट के साथ -साथ तेरे गम पकड़ता
तेरे आराम को हथेली पर सहेजता ,
खुदा की न्यामत का सफल रूप देखिये

तेरी किरणों से छूटा हूँ

भरी दोपहरी
डोरी पे टंगा
मैं आहत हूँ , मैं आहत हूँ
झर झर करती निर्झरी
मंद-मंद बहती पवन
तेरी कोई निर्झरी
तेरी कोई हवा
मुझ तक पहुँचती ही नहीं
मेरा कातर चीत्कार
मैं आहत हूँ , मैं आहत हूँ
शीशे की तरह मैं टूटा हूँ
तेरी दुनिया का हिस्सा होकर भी
तेरी दुनिया से रूठा हूँ
तेरी उजली किरणें सिर पर बिखरी हैं मगर
तेरी किरणों से छूटा हूँ

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

हौसलों की भीड़

आदमी ,
जब तक जीतता रहता है
हौसलों की भीड़ भी ,चलती है उसके साथ
हार जाता है ,
तो ताकता है हौसलों , गुमानों की तरफ़
ख़ुद का ही जो हिस्सा थे
उन्हीं बेगानों की तरफ़
गर एक भी हौसला बचता नहीं है उसके पास
ख़ुद से हारा तो हार जाता है आदमी
ज्यों जिंदगी हो दांव पर
ख़ुद को ही हार जाता है आदमी

सोमवार, 17 नवंबर 2008

कविताओं का कहना है क्या

भारी भरकम गहनों से सजी , 
दुल्हन का अपना रूप है क्या

भरी भरकम शब्दों से सजी , 
कविता का अपना रूप है क्या

भावों के बिना ये फीकी है , 
आधारों का कहना है क्या

सूरत और सीरत से सजे , 
श्रृंगारों का कहना है क्या

मुखड़े पे नज़र टिकती ही नहीं , 
चुम्बक का कहना है क्या

अलंकृत हो कविता शब्दों और भावों से ,
कविताओं का कहना है क्या

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

झट से सूरज दिख जाता है


सूर्य देवता के रथ चढ़ आये
मेरे सांझ सवेरे

बिन डोरों के ज्योति पकडें
मेरे आस उजाले

मन की यात्रा तो लम्बी है
जीवन यात्रा छोटी

बुध्दि इसका पार पाये
दुख की मात्रा मोटी

लंबे लंबे डग भरता है
ऊंची ऊंची उडानें

पल में नीचे गिर जाता है
खाइयों जैसी खदानें

कैसे खाने दे डाले
हँसों सी उजली काया को

मोती इसका खाना है
हचान पाया माया को

तैर -तैर ऊपर आता है
दाएँ-बाएँ सब जाता है

डोरी अपने हाथ पड़ी जब
से सूरज दिख जाता है

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

कुछ शेर

कटी शाखों के निशानों को , रोज रोज देखा नहीं जाता
टपकने लगता है लहू , जख्मों को कुरेदा नहीं जाता

मेरे महबूब के हाथों में कोई खंजर तो नहीं
उसके जख्मों से भी रिसता है लहू , कोई पानी तो नहीं 

ैसी हलचल है मेरे घर में , वीरानी तो नहीं 
कैसे जानूं जिन्दगी , मैं तेरी दीवानी तो नहीं

वही दुनिया है , खूबसूरती का सामान नज़र आती है
वही दुनिया है कि मौत का आगोश नज़र आती है

कैसे पकडूँ कि हर चीज़ फ़ना होती है
अपने अन्दर ही खामोशी की जुबान होती है

अपनी दुनिया में खुशी मेहमान बन के आती है 
उनींदी आंखों में कोई ख्वाब बन के आती है

घूँट घूँट पी लो तो जिन्दगी नशा होती है
छूटे जो हाथ से ,टुकडों टुकडों में बंटी होती है

या खुदा , ये कैसी बेकसी है के 
मन के हालात ही नजारों में नज़र आते हैं

संभालें हम मन की डोरें

आओ कह डालें , सारी कथा
जीवन की सारी व्यथा

मन का प्याला हुआ क्यों खाली
टोली क्यों दुःख दर्दों की छा ली

क्यों चाबे ये चना चबैना
मन का इक मोर मुरैना

पकडें हम मन के धागे
क्यों हम जीवन से भागे

आओ कुछ उजली किरणें बाटें
बढती जायें ये जितनी काटें

सच के पैरों से चल लें
काँटों से यारी कर लें

दुनिया से जो हमको पाना
है बस वही वही लुटाना

धरती हो ऊबड़ खाबड़
चबाना है प्रेम का आखर

संभालें हम मन की डोरें
बाकी हैं ढेरों उजली भोरें

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

जीवन संग्राम


भ्रम में है तेरा अर्जुन सखा
आकर कोई राह सुझाओ मोहन
रिश्ते नाते रखो ताक पर
सखा धर्म निभाओ मोहन

कुरुक्षेत्र का मैदान , जीवन संग्राम
छल दल बल संग खड़ा सामने
गांडीव छूटा जाए हाथ से
युद्ध का बिगुल बजा नाद से
मुझको आके संभालो मोहन

काली घटा विषाद की छाई
मतिभ्रम मुझको बेडियाँ डाले
लडूं मैं ख़ुद से कैसे बताओ
क्या पाउँगा विद्रोह के पथ पर
कर्म योग सिखलाओ मोहन

सुख-दुख कैसे सम कर जानूं
मनोवेग को कैसे वश कर
जीवन पथ पर चल पाऊं
सारथि मेरा जन्मों से तू
आकर कोई राह दिखाओ मोहन

हवाओं का शुक्रिया करना

इन हवाओं का शुक्रिया करना
इन्हीं आंधिओं ने सिखाया ,
सुलगती चिंगारी को जलना

मन की रोशनी कमाल होती है
अंधेरी रातों का चिराग होती है

उधारी आगों से क्या होगा
तपना बाती को आप पड़ता है

जितनी तेज हवा ,जितना तेरा हौसला
उतना ही तेज उजाला होगा

हवाएं तो बस बहाना हैं
तेरी उम्मीद के दीपक को सुलगाना है

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

जिन्दगी का जाप

जो तू मुझ पे वारे खुशियाँ ,
तो मैं जिन्दगी के गीत लिखूँ

पकडूँ डोरों को
झूलने के मीत लिखूँ

जोड़ूँ कड़िओं को
साहिलों की बात लिखूँ

गिनूं तरंगों को
लहरों की आस लिखूँ

चलूँ धरती पर
चलने की ही कुछ बात लिखूँ

गिनूं क़दमों को
थिरकने को आकाश लिखूँ

महके गुलशन तो
रँगत का कोई माप लिखूँ

चुरा लूँ पराग तो
जिन्दगी का जाप लिखूँ

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

तेरा सखा जान रहा है

भीतर है सखा ,तेरा सखा

डोल रहा है

तू इसे ठगने में कामयाब रहा है

इसने तुझे टोका ,तूने इसे रोका

टुकड़े टुकड़े तेरा वजूद डोल रहा है

तूने क्या पाया ,तूने क्या खोया

इसने रखा है हिसाब ,तू क्या पानी डाल रहा है !

टुकड़े टुकड़े हो कर भी क्या जीना ,

टुकड़े टुकड़े को जीना ,जीने का ये अंदाज़

तेरा सखा जान रहा है

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

मन खिलखिलाना भूल जायेगा

जीने के लिए बहुत कुछ है

दिन और रात

सर्द गर्म मौसम के आसार

कर्त्तव्य और अधिकार

प्यार और मनुहार

शौक और अरमानों का संसार

मर्यादाओं पर जाँनिसार

कुछ भी चुनना

पर मत खोना

मन की चमक

मत भारी करना

मन का बोझ

इसकी अपनी खुशबू

दब जायेगी

मन खिलखिलाना भूल जायेगा

मन प्यार करना भूल जाएगा