मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

मन का आईना

बीता अन्दर है , लिखा बाहर होता है

बोझ मन पर होता है , छपा चेहरे पर होता है

चेहरा आईना हुआ मन का , लिख ले वही बात जो दिखाना तुझको

मजबूरी , बेचारगी , सदियों से वही बहाना मन का

लकीर-दर-लकीर मन पर उभर आयेगी

पाटने को कोई मिट्टी नजर आयेगी

दो-चार कदम हल्के हो कर चल लो

ख़ुद ही पकड़ लोगे पल्लू , फ़िर कोई बनावट संभाली जायेगी

2 टिप्‍पणियां:

  1. मजबूरी , बेचारगी , सदियों से वही बहाना मन का
    लकीर-दर-लकीर मन पर उभर आयेगी
    पाटने को कोई मिट्टी न नजर आयेगी
    दो-चार कदम हल्के हो कर चल लो
    bahut sahi kaha ji ,bahut khub pasand aayi rachana badhai.

    जवाब देंहटाएं

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