शनिवार, 30 मई 2009

चलना भूल गया



जब हम किसी से या परिस्थिति से नाराज होते हैं तो पीते हैं कड़वे घूँट यानी नकारात्मकता और पीने वाला होता है हमारा मन


हवाओं में घुला जहर


पीते ही तड़प उठा


जिस घूँट की मनाही थी


गले में ही अटका बैठा


बड़ी पैनी हैं आँखें


सूँघ लेने में मन की


बहुत चाह की आँखें


बंद करके चलने की


कोई तो भेद होगा


अपने रास्तों में


हवाएँ रखने का


कदम कदम पर


ठोक पीट कर


बिन पानी मछली सा


नजारा होगा


बावरा सा है ये


पींगों की बात भूल गया


काँटों में उलझा तो


लहुलुहान दिल लिए


चलना भूल गया

सोमवार, 25 मई 2009

ये कहाँ जा रहे हैं हम !




विएना में गोली चलने के विरोध में पंजाब में प्रदर्शन-कारियों ने कितनी ही रेलगाड़ियों में आग लगाई , जाम किए , तोड़फोड़ की | क्या कोई दूसरा रास्ता नहीं था विरोध प्रदर्शन का ? जिस ताकत को आप सृजन में लगा सकते थे वो आपने विध्वंस में लगा दी | नुक्सान चाहे व्यक्ति विशेष का हो या देश की सम्पत्ति का , भरपाई मनुष्य को ही करनी पड़ती है | सरकार कर के रूप में , महंगाई के रूप में हमसे वसूल ही लेगी | जो क्षति मनुष्यता की होती है उसकी भरपाई पीढियों को करनी पड़ती है |


हमें जरुरत है ऐसे नेताओं की , जो शांतिपूर्ण ढँग , न्यायोचित ढँग से मनुष्यता को नेतृत्त्व दे सकें ; हमारी बात दुनिया के सामने रख सकें | भीड़ जब ताकत का प्रदर्शन करती है , उसकी ऊर्जा में सब बह जाता है , कई बार लोग ऐसे हालातों की आड़ में व्यक्तिगत दुश्मनियाँ भी निकाल लेते हैं | जब तक होश आता है वक़्त हाथ से निकल चुका होता है |


आज के हालात में हम सरकार पर ही तो दबाव बनाना चाह रहे हैं कि वो कुछ करे , सरकार हम आप जैसे लोगों से ही बनी है | और जो लोग विध्वंसात्मक ऊर्जा के शिकार हुए वो भी हम आप में से ही हैं | नुक्सान सिर्फ़ भौतिक स्तर पर ही नहीं होता , भावनात्मक स्तर पर जो होता है उसे यादों की किताब से मिटाना मुश्किल ही होता है | हम कुछ ऐसा करें कि दुनिया अगर याद भी रख सके तो ऐसा करें कि हमें याद करते ही दुनिया की दुखती रगें हिलने लगें | जब हमारे पड़ोसी के घर आग लगी होगी तो क्या आँच हम तक पहुंचेगी ? जब वो भूखा सोया होगा तो क्या हम उसकी सिसकियाँ सुन सकेंगे ? मानव होकर भी मानवीय संवेदनाओं रहित ? ये कहाँ जा रहे हैं हम !

शनिवार, 23 मई 2009

न रुपया है न वो माया है


रुपया है वो माया है


ही वो तेरी काया है


मुझको लुभाता है जो


वो मेरी ही रूह का साया है


इन हँसीं नजारों से परे


मेरे साथ-साथ चल पाया है


सुख-दुःख के इशारे पर


भटके थे ,तो ये भरमाया है

मंगलवार, 19 मई 2009

शुक्रिया , अमर उजाला


शुक्रिया , अमर उजाला , आज ' कोई मन गिरा कर तो नहीं बैठा है ' को प्रकाशित करने के लिए | ब्लॉग से ये सन्देश शायद काफी लोगों तक नहीं पहुँचा , हाँ अमर उजाला की आवाज इसे उत्तर-प्रदेश व उत्तराखंड के अधिकाँश घरों तक पहुँचाने में सक्षम है , ऐसा विश्वास है | और हाँ , आपकी निष्पक्षता का भी यकीन हो चला है , वैसे तो अपने खुदा पर ही मेरा विश्वास दृढ है कि वो जिस बात को दुनिया के सामने लाना चाहेगा उसको कोई रोक नहीं सकेगा , इसीलिये एक सब्र जैसी चीज मन ने पाल रखी है | मेरी रची वो दूसरी ही कविता थी जिसे आपने 'आखर ' में प्रकाशित किया था |


२००७ में ही जब मैं अपने इकलौते बड़े भाई जी के घर गयी थी , उन्हीं दिनों कविता लिखना शुरू किया था , तो बड़ा मन होता था कि कोई सुने भी , खास कर अपने भाई-बहन तो सुनें | उन्हें जब मैंने कवितायें सुनाईं , पढ़वाईं , उन्हों ने कुछ की तारीफ़ की , कुछ में फेर-बदल करने को कहा और फिर ये कहा कि ' शारदा , कोई अगर कविता सुनाने को न कहे तो वहाँ कविता कभी मत सुनाना '| बात तो उन्होंने जायज कही थी पर मन कहीं छन्न से टूट गया था , कवि नाम के जीव की दुनिया में इतनी बेकद्री है ! ' जहाँ न पहुँचे रवि , वहाँ पहुँचे कवि ' वाली उक्ति याद आई , उस रात नींद आँखों से दूर चली गई थी , आँसू आँख में आया पर गाल पर लुढ़कने से इन्कार करने लगा , मेरे प्यारे भाई जी की हर बात को सकारात्मक और शिक्षा-प्रद ही लेना है , ऐसा तय कर लिया | उस रात एक कविता का जन्म हुआ जिसे ' कवि ' शीर्षक से हिंद-युग्म के मई माह के पौड-कास्ट कवि-सम्मलेन में मेरी ही आवाज में सुन सकेंगे |


इस तरह मैं हर नकारात्मक बात से भी जितना सकारात्मक उठा सकती हूँ , उठा लेती हूँ , जैसे कोई ऐसी रासायनिक इक्वेशन हो जिसका फल हमेशा जोड़ में ही आना है | बस ये भी जिन्दगी जीने का एक भेद ही है |

रविवार, 17 मई 2009

परीक्षाओं के नतीजे और बच्चों के दिलों की बढ़ी धड़कनें

ज़िन्दगी सिर्फ़ टूटती साँसों को जोड़ना ही नहीं है
ज़िन्दगी टूटती आसों को जोड़ना भी है
साँस चलती है आस के साथ-साथ
उम्मीद से इसको जिलाना भी है
मन के मरे हिस्से भी जी जाते
स्नेह के बँधन से , धड़कन को
ज़िन्दगी के घूँट पिलाना भी है

परीक्षाओं के नतीजे आने वाले हैं , बच्चों के दिलों की धड़कनें बढ़ी हुई हैं , कोई भी आसानी से अवसादग्रस्त हो सकता है , परीक्षा अच्छी नहीं हुई या परीक्षा-फल अच्छा नहीं आया , ऐसे किसी भी कारण से .....उम्मीद बच्चों ने खुद भी रखी और उनके अभिभावकों ने भी .....लाखों लोग गला काट प्रतियोगिताओं की पंक्ति में खड़े हैं , हर किसी ने बहुत आशा रखी होती है पर हर कोई कैसे सबसे आगे खड़ा हो सकता है ! परीक्षा के चन्द घंटे ही आपकी दिशा कैसे निर्धारित कर सकते हैं ? कुछ घन्टों की परीक्षा का नतीजा हमारी जिन्दगी को दाँव पर लगाना कैसे हो सकता है ? हम इतना जोश भरें अपने आप में कि जिन्दगी के कितने भी इम्तिहान आयें हम हँस कर जिन्दगी का पल्ला थामें .....

हर कोई एक दूसरे से अलग मगर एक अकेला विलक्षण है , उसी गुण को महसूस करने की व उभारने की कोशिश करें .....दुनिया में जिन्दगी से बढ़ कर सुन्दर कोई चीज नहीं है , बस बाकी बातों को सेकेंडरी करदें ; बाकी बातें तो जिन्दगी के गुणों को बढ़ाने वाली होती हैं .....ऐसे वक़्त में अभिभावकों , मित्रों सहित हम सबका कर्तव्य बनता है कि हम अपने सामाजिक दायरे में जागरूक रहें कि कोई भी मन गिरा कर तो नहीं बैठा है .....इस बात का ध्यान रखें और उसे स्नेह की डोरी से उठाने की कोशिश करें..... खास कर माँ-बाप की ये जिम्मेदारी है कि वो अपने बच्चों को सुरक्षा की भावना से भर दें , उन्हें विश्वास दिलाएं कि परीक्षा फल उतना मायने नहीं रखता , बेशक दुनिया इधर से उधर हो जाए वो अपने बच्चे के साथ खड़े हैं क्योंकि उनके लिए उससे प्यारा और कोई है ही नहीं .....

बच्चों को किसी न किसी काम में लगाए रखें ताकि मस्तिष्क को कोई न कोई दिशा मिली रहे , एक तरफ निराशा हो भी तो सहारा देने के लिए दूसरी आशा उँगली पकड़ ले ....और बहुत से अवसर आयेंगे जब वह अपनी योग्यता परख पायेंगे , ऐसा विष्वास रखें ....

ढाई आखर


अपनों से प्यार सभी करते , गैरों से कितनी दूरी है


कितने बौने हो जाते हम , ये कैसी मजबूरी है


कौन हैं तेरे अपने , चन्द रिश्तेदार , चन्द चापलूस


और वो सब पायदान , जो तेरी सफलता की सीढ़ी हैं


तेरे रुतबे के लोग , तेरे ओहदे से बराबरी करते


कितना पारदर्शी मन और कैसी अपारदर्शी नजर है


ये बनावट कहाँ सीखी ? कुदरत का कानून अलग है


उसकी दुनिया में ढाई आखर ही सारी पढ़ाई है

बुधवार, 13 मई 2009

तेरी थपकी का असर जादू सा



मुझे तो नीँद भी आए न
जो तू गोदी में मुझे सुलाए न
तेरी गोदी में है लोरी का असर
तेरी थपकी का असर जादू सा

सूरज तो है मुट्ठी में मेरी
उजली किरणों का मालिक
रात भर सपनों को गर्माता है
सुबह होते ही आसमान में नजर आता है

यूँ तो जीते हैं सभी
सोते-जगते हैं ,चले जाते हैं
लय मिला कर तुझसे
पलकों पे सपने लिये जड़ों से जुड़े रहते हैं




शनिवार, 9 मई 2009

गोदी में दुलारना याद है


आज मदर्ज डे है , तो माँ के नाम
माँ मुझे आज भी याद है
दालान में , भूरी भैंस का मुझको सींगों पर उठा कर पटकना
गोदी में दुलारती तुम ,
पाँच साल की मैं
स्कूल में , छुट्टी की घन्टी का बजना , सबसे आगे मेरा खड़ा होना
रामसरन का धक्का लगना और मेरा पूरी सीढियाँ लुढ़कना
घर पहुँचना याद नहीं
पर तुम्हारा गोदी में दुलारना याद है
तुमने सदा चाहा कि मैं अगली पँक्ति में खड़ी होऊँ
रामसरन जैसों के पीछे खड़ी भीड़ के दबाव से जो धक्के मुझे मिले !
माँ तुमने मुझे कुसूर देखना नहीं सिखाया , कारण जानना सिखाया
जोड़ने वाली गोंद अगर न बन सकी , तो कैंची या हथौड़ा भी नहीं बनाया
मन ने इतनी दुनिया देखी , प्यार पाने को आज भी ये बच्चा है
इतने गम खा कर , इतनी कस खा कर भी जो तुम चलती रहीं
वो मेरे पिता का प्यार , उसूल और अदब था
और तुम्हारा प्यार , अदब और कर्म था
और यही तुम्हारी ताकत था
आज जब मेरे सपने में आकर , तुमने मेरे बालों में खिजाब लगाया
मैंने जान लिया , चिरनिद्रा में सोई मेरी माँ ने आज फ़िर सपना देखा
अपनी औलाद के अगली पँक्ति में खड़े होने का अरमान देखा

शुक्रवार, 8 मई 2009

धुआँ


कमाल शब्दों का है या उसे जीने वाले का
लिखने वाला हर उस पल को जीता है
तब कहीं जाकर कागज़ पर वो उतरता है

इतना मुश्किल नहीं कविता करना
जितना मुश्किल है उसे जीना

वो जो कागज़ पे छपा होता है
लिखने वाले के सीने से गुजरा है

गुबार है धुएँ का
अक्षरों की शक्ल में उतरा है

जीते मरते हैं कई कई बार
हाथ में जाती है कलम
तो कई मौतों का पता मिलता है

चिंगारियाँ सी उठती हैं
आग जलती तो तमाशा होता
धुएँ का वजूद पिघलता है

पकड़ तो लेते हैं रँग और नूर की लड़ियों को
खुशी की उम्र थोड़ी है
हर बार ये दगा मिलता है

शनिवार, 2 मई 2009

वजूद हैं बिखरे से



बादलों से गुजरे हैं
नमी है सागर सी

बेहोश हैं जन्मों से
मदहोशी है गुमानों की

तन्हाई की बातें हैं
वजूद हैं बिखरे से

आसमाँ में उड़ते हैं
जमीं से उखड़े से

मेले हैं अरमानों के
डोली है बहारों सी

गुलाबों की पोटली है
सपनों से छूटी सी