बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

वो इतनी दूर

रँग आसमान का नीला क्यों
विरह पतझड़ सा पीला क्यों
यादों का तना गठीला क्यों
नश्तर सा समय नुकीला क्यों

कोई पूछ के आए तो उससे
वो इतनी दूर रँगीला क्यों
सपनों का पुलिन्दा चटकीला क्यों
भरमों का रँग भड़कीला क्यों

दिल में जो छुप कर बैठा है
पूछो पूछो , वो सजीला क्यों
आशा की उँगली पकड़ता है
रातों का ठिकाना ढीला क्यों

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

मुँह मोड़े फिरते हैं

कल गढ़-गँगा के उसी पुल और सड़क से गुजरी , जहाँ ठीक बीस साल पहले १७ फरवरी के ही दिन मेरी दीदी ने एक सड़क हादसे में अपने प्राण गँवा दिए थे | पिछले साल चाची जी के स्वर्ग-वास के बाद तेरहवीं से एक दिन पहले जब सब लोग बैठे थे , चाची जी की बहन ने मेरी दीदी को याद किया और कहा कि जब एक्सीडेंट हुआ तो हम भी उस रुके हुए ट्रेफिक में थे , किसी आदमी ने जो एक्सीडेंट देख कर आया था , हमसे कहा कि जो मर गयी है उसका मुहँ तो भुर्ता हो गया है बिलकुल रोटी के पिछले हिस्से की तरह | ........थोड़ी देर तक मुझसे कुछ बोला न गया ....सुन्न हो गई .... अचानक मेरे अहसास बुक्का फाड़ कर रोने लगे .........मैं जैसे खुद से कह रही थी .....हाय , मेरी दीदी के सुन्दर मुस्कराते हुए चेहरे का ये हश्र ? जब मैं छोटी थी , दीदी चेन्नई से जब घर आतीं थीं मुझे उनके पास सोना अच्छा लगता था .....पता नहीं उनके बदन के पसीने की खुशबू भी मुझे आज तक याद है |
नहीं नहीं , चाची जी की बहन का कोई दोष नहीं ......इन्सान इतना मशीनी हो गया है कि उसे दूसरे की संवेदनाएँ भूल जाती हैं , वो दुर्घटना को महज एक घटना की तरह देखता है ...या शायद पढ़-लिख कर बातों को मुलायम-सभ्य तरीके से कहना आ जाता है |

दुखों के साथ मरा नहीं जाता
ज़िन्दा हैं खुले जख्मों की तरह
वक़्त के साथ होती है भरपाई
सिलाई , सिले जख्मों की तरह
कलेजा मुँह को आता है , जब जख्म
जिन्दा हो उठते हैं , उसी मन्जर की तरह
लाख चाहें जुबाँ सी लें , हूक उठती है
टूट जाते हैं शीशे की तरह
हम तो मुँह मोड़े फिरते हैं
क्यों देखें इन्हें हरे जख्मों की तरह
जो है सहेज लें
अपनी पोटली के खजाने की तरह

कम्बख्त ,
ग़मों ने बूढ़ा कर दिया
वर्ना उम्र की हिम्मत नहीं थी
हौसले से पँगा लेने की
दुखों के कसीदे गढ़ कर
अपनी ही तो हौसला अफजाई की है
बड़े सँग-दिल हैं , दुनिया से दिल-लगाई की है
ताजे-बासी जख्मों को , मरहम सी दवाई दी है

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

किसके नाम पर लड़े

किसकी धज्जियाँ हैं उड़ीं
किसके नाम पर लड़े
जिसके लिए लड़े हो तुम
इन्सानियत शर्मसार है

कोई सुनता नहीं जो आवाजें
दँगा-फसाद , आगजनी
सदियों तलक कराहती
पीढ़ियों का कौन जिम्मेदार है

निशाने पर है भाईचारा
साजिशों का न शिकार हो
मजहब तो सिर्फ रास्ता
सबकी मंज़िल एक है

इन्सानियत बिलख रही
काँच सा चटक रही
टुकड़ों में देखो तो चेहरा
दीन-ईमान लहू-लुहान है