मंगलवार, 25 मई 2010

खुद से ही दूर

नहीं जाना है उस गली
जो कर दे मुझे खुद से ही दूर

पानी से पतला जीवन है
फिसला जाता है अपना ही नूर

अग्नि से तेज क्रोध है
जल जाता है तन मन वजूद

हवा से तेज मन है चलता
नहीं संभलता है गति का अवरोध

आकाश से खाली हैं गर विचार
भारी नहीं है मन उदार

धरती सा धैर्य है अगर
फलें फूलें फसल भरपूर

खुद से मिल कर आ गए
छलावों में थे हम खुद से कितने दूर !

शनिवार, 22 मई 2010

ऐसी होती है दोपहर

आँखों में कटता है पहर
ऐसी होती है दोपहर

जीवन की दुपहरी दम माँगे
नाजुक मोड़ों पर तन्हाई
चुभता सूरज भी ख़म माँगे
खोल ज़रा तू हाले-जिगर
ऐसी होती है दोपहर

प्राण साथी का ही काँधा माँगे
तप कर पिघली है तरुणाई
घिरे बदरा से बरखा माँगे
तपता आसमाँ भी गया है ठहर
ऐसी होती है दोपहर

मंगलवार, 11 मई 2010

इतनी सी नमी

कागद काले हैं किये
या धड़कन को पिरोया साँसों में
नजर-नजर का फेर है
गीत बन जाते , शब्दों के हेर-फेर से
अजनबी से लगते हैं
दिल का साज छेड़ कर देखो
तराने बुनते हैं
सागर अँजुली में लिए
ये वो दोना है
पी ले तो अपना सा है
छूटे तो धरती पर बिखरे
कागद काले हैं किये
इसी के दम पे रात कटे
इसी के दम पे दिन की शुरुआत हो
नजर-नजर का फेर है
सँवर के आदमी इन्सान बने
आँधी-तूफ़ान को सहने में ,
बेलों के वजूद ही काम आये हैं
सहराँ में फूल खिलाने को ,
इतनी सी नमी से भी , आराम आये

गुरुवार, 6 मई 2010

धुएँ का पहाड़

आदमी कुछ भी नहीं
हसरतों के सिवा
धुएँ का पहाड़
उठता है
क्या जाने किधर से आता है
चिँगारी दिखाने की देर है
लपटों से घिरा नजर आता है
कभी बेड़ियाँ , कभी पायल
और ख़्वाबों की सैर-गाह
कभी गुबार और
लपटों से झुलस जाता है
आदमी कुछ भी नहीं
चिँगारी , गुबार और लपटें
धुएँ का खेल है
आदमी को बीमार कर जाता है