सोमवार, 4 अगस्त 2014

जीवन की भागम-भाग में , कभी सुना ही नहीं

तन्हाई अक्सर बातें करने लगती है 
मन्दिर के गूँजते हुये घण्टों की आवाजें 
मस्जिद से अज़ान की आवाज 
दूर फ्लैट्स में होते हुये मैच की आँखों देखी कमेन्टरी की आवाज 
भर देती मुझमें एक अन्त-हीन उदासी 
जलसे के लिये सजते इन्तजाम देख कर लगता कि 
कुछ वक्त की सजावट है 
अगले दिन का उजड़ा चमन किसने देखा 
और चौराहे पर जैसे कब्रिस्तान रख दिया गया हो 
तन्हाई अक्सर पैरों में बेड़ियाँ डाल देती 
मन बड़ा काइयाँ होता है 
इसे जिधर जाने से रोको , उधर ही जाता है 
निराशा वो मन्जर भी दिखलाती है , जो वैसे दिखते ही नहीं 
मन ने ये सब सूँघ लिया 
जिसे जीवन की भागम-भाग में मैंनें कभी सुना ही नहीं था 
दुख भी सार्थक है , जो सिखला जाता है 
कि जीवन कर्म और प्रेरणा के बिना अर्थ-हीन है।