रविवार, 13 दिसंबर 2015

क्या-क्या लिक्खा

देखूँ तो जरा ,
मेरे क़दमों में तूने है क्या-क्या रक्खा 
मेरी पेशानी पे है क्या-क्या लिक्खा 

ऐ लेखनी तेरे क़दमों की धूल बनूँ 
लो फिर मैंने कोई तमन्ना कर ली 
वक़्त मिटा डाले चाहे जितना 
दिल है के कोई सहारा माँगे 

कहते हैं के तकदीर नहीं बदल सकता कोई 
फिर ये जद्दो-जहद किस के लिए 
रँग की दुनिया का कहर किस के लिए 
फिर जो होना है तो होता रहे , झेल ले जिगर के साथ 

ज़िन्दगी एक रवानी के सिवा कुछ भी नहीं 
सिर्फ कोशिश भर नहीं है ज़िन्दगी 
कौन जाने किसके पसीने ने वक़्त के सीने पर है क्या-क्या लिक्खा 

रविवार, 27 सितंबर 2015

सारे के सारे सच बोल दिये

किस्मत ने पत्ते खोल दिये 
सारे के सारे सच बोल दिये 
छन्न से सारे बिखरे अरमाँ 
भरमों के हाथ में ढोल दिये 

कोई रानी राजा गुलाम दिये 
हारे जीते और सलाम किये 
शतरंज के हम सब मोहरे हैं 
ऊपर वाले ने झोल दिये       

कुछ घूँट हलक में अटक गये 
कुछ जहर के जैसे काम किये 
ज़िन्दा हैं फिर भी दुनिया में 
ज़िन्दगी ने ये कैसे जाम दिये

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

पेरेन्ट्स का रिटायरमेंट

तुम इस बदलाव के साझीदार बने 
हो हर कदम पर हमारे साथ 
ये सुकून है हमको 
बोये थे जो बीज कभी ,
फूल बन कर लहलहाये हैं 
दुनिया की हवाओं में भी जो महफूज़ रहे 
रिश्तों की उसी छाँव में चल के आये हैं 

हमारी धूप पहुँची है तुम्हारे दिल तक 
यही बहुत है हमारे जीने के लिये 
गर ये पड़ाव इतना हसीन है तो 
हमें जरुरत क्या अतीत में झाँकने की 

उम्र ने देख लिया ये पड़ाव भी हँसते-हँसते 
पेरेन्ट्स का रिटायरमेंट ,
ज़िन्दगी की है नये सिरे से शुरुआत 
बच्चों ने भी लिया इसे हाथों-हाथ 

अब हम पर मौसम का असर नहीं होता 
तुम्हारी ठण्डी हवाएँ तैर लेती हैं हमारे आस-पास 
तुम्हारे चेहरे हमसे बतिया लेते हैं 

रविवार, 2 अगस्त 2015

आगे नया सबेरा रे

जड़ पकड़ने लगी है मीठी नीम 
फूलने लगे हैं जिरेनियम  
चल उड़ जा रे पँछी 
के अब ये देस हुआ बेगाना 

आस निरास के दोराहे पर 
डाला है क्यूँ डेरा रे 
अटका है क्यूँ उसी डाल पर 
ये तो जोगी वाला फेरा रे 

तू क्या जाने किस किस डाल पे 
आगे तेरा बसेरा रे 
आँख खोल अब जाग मुसाफिर 
आगे नया सबेरा रे 


शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

अलविदा रास्तों

बचपन का घर छूटा जब , दिल को मालूम था कि इन मायके की तरफ जाते हुये रास्तों से अब आगे गुजरना मुमकिन न हो पायेगा.....

अलविदा रास्तों , पेड़-पौधों , गाँव-शहरों और रेलवे-लाइन 
अलविदा इन रास्तों के माइल-स्टोन्स को भी 
ये बाईपास , ये शुगर-मिल , रेलवे-स्टेशन , पुलिस-थाना 
ये चौराहा , बेकरी , राइट-टर्न , एक लेफ्ट टर्न 
गली , मन्दिर और फिर ये मेरा घर 
जाने कितनी ही बार यहीं खड़े होकर देखा था 
खेतों के बीच से गुजरती हुई रेलगाड़ी को ,
हाथ हिलाती हुई सी मैं नन्हीं बच्ची 
आज अधेड़ बन उसी जगह से शून्य की तरफ निहारती हुई 
कितना कुछ गुजर गया आँखों के आगे से 
घर के अन्दर मुड़ी तो .... 
ये मेरी अल्मारी , यहाँ किताबें , यहाँ कपड़े, यहाँ बिस्तर 
यहाँ बरामदे में माँ बैठी दिखाई देतीं थीं 
यहाँ पिताजी कुछ बीमार से जान पड़ते थे 
आखिरी बार नजर भर कर देख लूँ 
एक एक कमरा , दीवार पर टंगे हार चढ़े माँ पिताजी के फोटो फ़्रेम्ज को भी 
अलविदा मेरे घर , अब तुमसे दुबारा मिल न पायेंगे 
अलविदा  , अलविदा 




शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

अब कौन समझने वाला है

क्या कहिए अब इस हालत में ,
अब कौन समझने वाला है

कश्ती है बीच समन्दर में
तूफाँ से पड़ा यूँ पाला है

हम ऐसे नहीं थे हरगिज़ भी
हालात ने हमको ढाला है

कह देतीं आँखें सब कुछ ही
जुबाँ पर बेशक इक ताला है

लौट आते परिन्दे जा जा कर
घर में कोई चाहने वाला है

बाँधने से नहीं बँधता कोई
आशना क्या गड़बड़ झाला है

ज़ेहन में उग आते काँटे
ये रोग हमारा पाला है

घूम आते हैं अक्सर हम भी
वक्त की 
तलियों में छाला है

नजरें फेरे हम जाप रहे
बाँधे आसों की माला है   

मंगलवार, 30 जून 2015

कोई इस तरह भी दुनिया से जाता है क्या......

वे मैं तड़फाॅ वाँग शुदाइयाँ 
वे आ मिल कमली देआ साइयाँ 

तू घोड़ी पे चढ़ा 

मैं डोली में बैठी 
सपना था यही , नींद टूटी , ओझल हुआ 
सात फेरों का क़र्ज़ है तुझ पर 
बरसों-बरस गुजर गये तेरी राह तकते-तकते 
नामलेवा नहीं मेरा कोई 
ये जनम तो तेरे नाम किया 
न पूछ के कैसे है कटा ये सफर 
मुझे और उम्मीद थी , और हुआ 
की रब ने बड़ी बेपरवाहियाँ वे 

हर किसी पे आती है जवानी 

किसी-किसी को मिलता है कद्र-दान 
किसी किसी का इश्क चढ़ता है परवान 
मैं किसी फरहाद की शीरी तो नहीं 
किसी राँझे की फ़रियाद नहीं 
किसी धरती का नाज़ नहीं 
आ , अपने कमण्डल से पानी जरा सा त्रौक 
शायद ये आँख लग जाये 

वे मैं तड़फाॅ वाँग शुदाइयाँ 

वे आ मिल कमली देआ साइयाँ 

जिस कहानी ने इसे रचा.…पढ़ने के लिए यहाँ देखें
एक थी भिरावाँ


मंगलवार, 23 जून 2015

सिक्के बचपन की गुल्लक के

वक़्त के साथ जब आदमी आगे बढ़ता है तो कोई दिन तो आता है जब पुराना सब कुछ छोड़ कर उसे सिर्फ आगे देखना होता है ; यहाँ तक कि वो घर भी जिसमें बचपन बीता ,यादों के हवाले हो जाता है ...

मेरे बचपन का घर छूटे जाता है 
माँ-पापा की छत्र-छाया के अहसास का घर छूटे जाता है 
भाई-बहनों के साथ का घर छूटे जाता है 
यादों के अनगिनत लम्हे भी उतर आते हैं ज़ेहन में 
कसैली यादें तो लिपट जातीं हैं मेरे वज़ूद को नीम करेले की तरह 
दो बूँद आँसू ढुलक उठते हैं मेरे गालों पर 
और मीठे लम्हे तो मुस्करा उठते हैं गाहे-बगाहे 
लौट के आना बचपन का नामुमकिन है 
और यादों से भुला पाना भी मुश्किल है 
बचपन का खाया दूध-दही , मेरी रगों का खून सही 
वो बेफिक्री-मस्ती का आलम , आज भी मेरी चाह वही 
खन-खन बजने लगते हैं सिक्के बचपन की गुल्लक के 
माँ का लाड़-दुलार , पापा की हिफाज़त , भाई-बहनों के साथ का अहसास 
सखी-सहेलियों की आवा-जाही ,दादी चाचा-चाची के साथ उत्सव का सा माहौल 
इन सबके बिना अधूरा सा मेरा वज़ूद 
इसी घर में शैशव ने थी उँगली पकड़ी यौवन की 
इसी घर की दहलीज़ के बाहर दुनिया बहुत अलग थी 
वो बचपन की कौतुहल वाली आँख से दुनिया का परिचय 
मैं आज जो कुछ भी हूँ , उसी बचपन की बदौलत 
ये उजाले चलेंगे ताउम्र मेरे साथ-साथ 
मेरी भी उम्र जियेगा ये घर मेरे साथ-साथ 

गुरुवार, 4 जून 2015

तुम हो तो हम हैं

विश्व पर्यावरण दिवस पर पौधों के लिये

मेरे पौधों ,खिलो तुम जान से प्यारों की तरह 
फूलो-फलो दुनिया में , सितारों की तरह 

पीने दो मुझे मीठी सी कोई चाह 
थिरकने दो किसी धुन पे ,धड़कनों की तरह 

आयेंगीं आँधियाँ भी , तूफ़ान उठेंगे 
गले लगो मेरे ,सदियों से बिछड़ों की तरह 

दर्द हर हाल में रँग छोड़ता है 
बदलो इसे माज़ी के हवालों की तरह 

मैं तुम्हारी सब कुछ तो नहीं बन सकती 
समझो मुझे दोस्त-माली सा , सायादारों की तरह 

ये कोई चुग्गा तो नहीं है डाला मैनें 
तुम भी जी लो दुनिया में ,ऐतबारों की तरह  

हमने जिसे माँगा है , फिज़ाएँ हैं वो 
तुम बिन कहाँ महकती हैं ,वो खुशबुओं की तरह 

धरती ,पर्वत ,बरखा-पानी , जानें तुम्हारी सारी मेहरबानी 
तुम हो तो हम हैं , तुम्हीं हो हमारी ज़िन्दगानी की तरह 




सोमवार, 25 मई 2015

कुछ यादें रँग भर लेतीं हैं


तेरी छोटी बहना के कमरे की दीवार पर 
तेरी बनाई हुईं तितलियाँ 
पँखे की हवा में पँख हिलाने लगतीं हैं 
जैसे उड़ रहीं हों किसी गन्तव्य की ओर 

बदल लेते हैं हम घर अक्सर 
जैसे चुरा रहे हों नजरें खुद से 
मछली ,तितली और फूलों को देखा है अक्सर मन के कैनवस पर 
आसाँ है इन्हें बना पाना , तैरें उड़ें और फूल खिलें 
कुछ यादें रँग भर लेतीं हैं , और कोई कुशल चितेरा बन जाता है 
न जाने कितनी ही चीजें तेरे अहसास में गुम हैं 

तू उठ कर चली गई है 
मगर हम संजोये हुये हैं सब कुछ ऐसे 
जैसे हर सलवट को सजाये हैं 
तेरी नर्म उँगलियों के अहसास को गले से लगाये हैं 
जब जी चाहे बुला लेते हैं तुझे यादों में 
मेरी आस की तितलियाँ भी हौले से पँख हिलाने लगतीं हैं 
और फूल खिलने लगते हैं 

मंगलवार, 19 मई 2015

मिट गए कब से वफ़ा , दीन-ईमान

४२ साल की बेहोशी के बाद हमेशा के लिये सो गईं अरुणा शानबाग , मुठ्ठी भर हड्डियों में तब्दील हुईं वो ख़ूबसूरत चेहरे की मालकिन अरुणा , एक टीस सी उठती है ,कुछ हर्फों में उतरती है. ...

वो एक दिन , वो एक कर्म ही काफी है 
मेरी हस्ती को मिटा देने के लिये 
तेरी ये मिल्कीयत मेरे ज़मीर पे भारी है 

के हम भी सीने में दिल रखते हैं 
जुबाँ खामोश है , फ़िज़ाँ भारी है 
तिल-तिल मरता हुआ मिट गया कोई 
मिट्टी में मिल गई सारी खुद्दारी है 

जो रँग भरते हैं गुलशन में 
मिट गए कब से वफ़ा , दीन-ईमान 
चुरा लिये हैं किसी ने मेरे सुबह-ओ-शाम 
चन्द साँसों का क़र्ज़ बाकी है 
ज़िन्दगी ने ये रात भी गुजारी है 

आईना किसको दिखाऊँ 
धड़कनों की भी उधारी है 
देखे तो तुझे भी शर्म आ जाये 
के तेरी करतूत ने ले ली मेरी उम्र सारी है 

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

रिश्ता ,ऐतबार का

एक माँ की नजर से....
मैंने बहुत चाहा कि 
बनूँ वो रिश्ता ,ऐतबार का 
वो छाँव आराम की 
वो गोद चैन की 
दुनिया से हताहत हो कर भी 
पाओ जहाँ तुम ,वो बाड़ हिफाज़त की 
कहीं कोई कमी न रहे 
मेरी हीरे की कनी 
गुमराह न हो जाना कभी 
दुनिया लुभाती है बहुत 
और रौंद के छोड़ जाती है वहीँ 
रखना वो नजर , जो देख पाये ये सब भी 
सबको देखना एक ही नजर से बेशक 
मगर व्यवहार में सबको निभाना होगा
हर रिश्ते का क़र्ज़ चुकाना होगा 
ऐतबार माँगने से नहीं मिलता कभी 
ऐतबार कमाना पड़ता है 
गुजरे हैं कभी हम भी उसी राह से 
धूप कितनी भी हो ,अपने हिस्से की छाया में बसर करना 
हो सके तो दूसरों के लिये भी छाया बुनना 
हाँ , रखना तुम ऊँचे इरादों पर अपनी नजर 
माँ की दुआओं ने बुना है आसमान 
तुम आ के उड़ानें भरना 

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

आज़ाद हो जाती हूँ

यूँ तो आम धारणा ये है कि लेखन निठल्ले लोगों का काम है। कहीं पढ़ा था कि जब सारी ऊर्जा केन्द्रित हो कर लेखन में उतर आती है , तभी कविता का जन्म होता है। इसमें सबसे अच्छी बात ये है कि लेखक को एक दिशा मिल जाती है। दुनिया जानती है कि जो बात आम तौर पर नहीं कही जा सकती , वो कविता-गीत के माध्यम से बड़े प्रभावशाली तरीके से कही जा सकती है।
इतनी चुप 
के बर्फ का बूँद-बूँद बन कर , टपकना भी सुनाई दे 
नीरवता में खलल पड़े

ये वही जगह है ,
जहाँ अन्तस में उठता शोर ,मुझे जाता था दबाये 
जब और न कुछ बना सका वक्त मुझे 
तो दी लेखनी थमा 

अब मैं और मेरी लेखनी 
तमाम मुश्किलें , जज़्बात ,ख़्यालात 
लफ़्ज़ों में ढल उठते हैं 
और मैं आज़ाद हो जाती हूँ 
आज़ाद हो जाती हूँ , वक्त की गिरफ्त से भी 

गुरुवार, 26 मार्च 2015

पलकों पे है जो ठहरा

वाट्स एप पर ग्रुप बना कर कॉलेज के वक्त के साथियों से मिलाने का काम किया एक मित्र ने , चालीस साल का लम्बा अन्तराल ...अब चेहरों को पहचानने की कशम-कश जारी है ...

हम वैसे ही न मिलेंगे ,
जैसे जुदा हुये थे 

बरसों के फासले हैं ,
उम्र का भी है तकाज़ा 

जादू सा किसने फेरा ,
बदलीं हैं सारी शक्लें 

झाँकेगा वही चेहरा ,
पलकों पे है जो ठहरा 

वक़्त की है ये आँख-मिचोली ,
पलटे हैं पन्ने यादों ने 

दो कदम चले थे साथ ,
राहें बदल गईं थीं 

ख़्वाबों का कारवाँ भी ,
हमें ले के गया किधर 

बचपन की तरह छूटा ,
दौड़ा रगों में लेकिन 

छेड़ा है हवाओं ने ,
फिर से वही फ़साना 

किस चेहरे को किस से जोडूँ ,
यादों का मुँह मैं मोडूँ 

शनिवार, 21 मार्च 2015

नया साल है , नई बात हो

आओ हम इक दीप जलाएँ 
अँधियारे को दूर भगाएँ 

नया साल है , नई बात हो 
एक नई उम्मीद जगाएँ 

मन मैले को खूब बुहारें 
दम भर को फिर हम सुस्ताएँ 

खिली धूप हो हर चेहरे पर 
ऐसा कुछ हम भी कर जाएँ 

आज जो हमने बोया है ,कल काटेंगे 
दूर की कौड़ी हम भी ले आएँ 

कतार दियों की ऐसी हो रौशन 
मन  और प्राण से हम मुस्काएँ 

बुझ न जाये कहीं कोई दिल 
उसको भी हम गले लगाएँ 

खिड़-खिड़ हँसती रात दिवाली 
जीवन में हम ऐसी पाएँ 

दूर खड़ा मुस्काता सूरज 
कोई किरण तो हम भी चुराएँ 

दम कदमों में भर दे जो 
ऐसी कोई अलख जगाएँ 

गुम हैं हम तो खुद में देखो 
दायरा अपना कुछ तो बढ़ाएँ 

नाम किसी सफ़्हे पर आये 
ऐसा कुछ हम भी कर जाएँ 



मंगलवार, 3 मार्च 2015

मिट्टी में तेरा मान रे

अज्ञान ,अशिक्षा ,अविवेक ने , मन पे रक्खी न लगाम रे
अपने ही हाथों अपनी ही दुनिया का ,कर डाला काम तमाम रे

चरस ,गाँजा ,सिगरेट ,शराब , दाँव पे तेरी सेहत रे
तन-मन धन सब होगा अर्पण , गड्ढे में तेरी जान रे

चुग जायेगी चिड़िया तेरा ,सारा खेत ये जान रे
गुजरा वक़्त नहीं है आता , भर नहीं पाते निशान रे

ज़मीर सदा धिक्कारेगा तुझको ,अपने चुरायेंगे आँख रे
पीढ़ियाँ रोयेंगी नाम को तेरे ,मिट्टी में तेरा मान रे

होते हैं नियम कायदे-कानून , समाज नहीं है जँगल रे
पहुँच गया है आदमी चाँद पे ,उलझा है किसमें 
तू नादान रे 

रक्षक ही बन बैठा जब भक्षक ,विष्वास का है ये खून रे 
रिश्तों की खोद डाली जड़ें हैं ,ये तो बता ये जन्म तेरा ,आया है किस काम रे 

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

तक रहीं हैं दाएँ-बाएँ

बेटे के फिलीपींस जाने के बाद अगली सुबह उसके कमरे में जाने पर मेरी संवेदनाओं ने जो लिखा.....

तुम्हारे जाने के बाद
एक सन्नाटा सा पसरा है
तुम्हारा शेविंग ब्रश , तुम्हारी कँघी
और वाश-बेसिन पर रखीं न जाने कितनी चीजें 
तक रहीं हैं दाएँ-बाएँ
तुम्हारा इन्तजार करतीं हुईं सी लगतीं हैं
तुमने ये कहा
"न संभालना मेरा कब्बर्ड , मेरे जाने के बाद "
मुझे पता है के तुम चाहते हो
माँ ज्यादा काम न करे
पता है मुझे ये भी के तुम बड़े हो गये हो
तुम्हारे अन्तरंग पलों में मुझे झाँकना नहीं है
तुम्हें स्पेस चाहिये
ये भी पता है के किसे बुरा लगता है ,
जो बिछाये बैठा हो कोई सेज फूलों की उसके लिये
दुआएँ मेरी तो सदा गीत गाती ही मिलेंगी
दूर महके तेरा चमन बेशक
चीजें तो बेजान हैं ,
फिर भी बोलती हुईं सी लगतीं हैं
नाप लो चाहे तुम दुनिया सारी
माँ की दुनिया तो आबाद है
अब भी तुम्हारे बचपन के नन्हें क़दमों से
किसने जाना था
कि गुजरा हुआ इक-इक लम्हा मायने रखता है
गुजर जाने के बाद

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

मँहगाई कैसे न बढ़े

राशन की दुकानों में ' ए ग्रेड ' की जगह ' बी ग्रेड ' का माल बिका 
खानसामों ने अपने खाने के बहाने , अपने पूरे घर का पेट भरा 
तत्काल की सुविधा भी एजेन्टस के हाथ हुई 
हर जगह धाँधली ,मिलावट , मुनाफा-खोरी 
हर किसी ने किया ,जिसका जितना दाँव लगा 
सूद-खोरों , दलालों , कमीशन-खोरों की चाँदी हुई 
मिलावटी खाना , मिलावटी बातें ,मिलावटी ज़ेहन 
कहीँ से इँच भर भी तू खालिस न हुआ 
दौड़ता फिरता है किसके पीछे 
सोने सा जनम पा के भी मिट्टी ही किया 
मध्यस्थता खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिये थी 
भारत की अर्थव्यवस्था ये किसके हाथ हुई 
कुकुर-मुत्तों की तरह उगे बिचौलिओं की परसेन्टेज अनलिमिटेड और बन्दर-बाँट की तरह हुई 
मँहगाई कैसे न बढ़े , मँहगाई कैसे न बढ़े 

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

इसी खिड़की से


इसी खिड़की से बाहर देख-देख कर ,
कितना मैंने अन्दर झाँका 
हिलती धरती , पाँव बहकते ,
एक फलक मैंने अन्दर टाँका 

ऊँचे पहाड़ों से घिरी झील है 
बहती नावें , महज़ दृश्य है 
नजर ही भरती रँग नज़ारों में 
लेखनी ने ये जग से बाँटा 

ले जायें किस मोड़ पे ये 
दृश्यों को कब टिकते पाया 
रिश्तों तक को रँग बदलते पाया 
झोली में जो शेष रहेगा 
ज़िन्दगी ने वो खुद से छाँटा 

मन के आँगन में एक है खिड़की 
धूप कभी सहला जाती है 
छाया का मन बहला जाती है 
राहों में गर फूल खिले हों 
कौन भला चुनता है काँटा 



गुरुवार, 15 जनवरी 2015

हवाओं के रुख को

वक़्त मेरी धज्जियाँ उड़ाता ही रहा 
मैं शब भर चिन्दी-चिन्दी बटोरती रही 

टूटे सपनों की किर्चें , धज्जी-धज्जी 
मैं दम भर  लम्हा-लम्हा जोड़ती रही 

चल रहा है हर कोई मंजिल की तरफ 
ये और बात है के ज़िन्दगी ही रुख मोड़ती रही 

ये मेरा अपना आप है , उधेडूं या सिलूँ 
सीवनें ,सलवटें ,बखिये , जोड़ती रही 

रेत के टीले , धँसते पाँव ,सहरा का सफर 
मैं माथे से हरदम पसीना पोंछती रही 

मेरा वज़ूद तक है छितराया हुआ 
हवाओं के रुख को सलाम ठोकती रही 

ये मेरा जलावतन है या अहले-चमन 
ज़िन्दगी के ताने-बाने का सूत अटेरती रही 


सोमवार, 5 जनवरी 2015

कतरा भी समन्दर ही है

मैं इसी भीड़ का हिस्सा हूँ 
वही पुराना कोई किस्सा हूँ 
चाहता तो हूँ मैं भी अगली पंक्ति में होना 
पहचान मगर कहाँ किसी आँख में उभरी 

पीछे मुड़ कर देखूँ , बहुत से लोग हैं मेरी ही तरह  
जो लोग चढ़े हैं फलक पे ,मेरे जैसों का हाल क्या जानेंगे 
शायद ये फासले जरुरी हैं ,इन्तिजमात के लिए 
आज उसका है तो कल मेरा भी तो हो सकता है 
खुशफहमियों में मैं सबसे आगे बैठा हूँ 

कतरा भी समन्दर ही है ,ये जाना मैंने 
ज़िन्दगी का सलीका है पहचाना मैंने 
तन्हा ही रहा तो खुश्क हो जाऊँगा 
वक्त की धूप में उड़ा भी तो , सबके साथ बादल सा बरस जाऊँगा